हे वीणावादिनि नित नवीन, अपना स्वर एक सुना देना।
वाणी हो अपनी देवि कहो, वंदना करूं कैसे तेरी।
सब नए छंद तेरा स्वरूप, तुझसे निकली कविता मेरी।
लेखनी करेगी अभिनन्दन, अपना सन्देश सुना देना।
हे वीणावादिनि---------------------------------
हे देवि तुम्हीं हो ज्ञानरूप, हे देवि तुम्हीं हो भक्तिरूप।
हर रूप तुम्हारा ही स्वरूप, हे देवि तुम्हीं हो शक्तिरूप।
जीवनीशक्ति मिलती जिससे, संगीत वही फैला देना।
हे वीणा वादिनि---------------------------------------
सम्पूर्ण सृजन हो सृष्टि तुम्ही, तुम ज्ञान राशि का अर्जन हो।
हो ज्ञान चक्षु की दृष्टि तुम्ही, तुम ही तो सम्यक दर्शन हो।
हे मुक्ति दायिनी तम पथ पर, अपनी नवज्योति जगा देना।
हे वीणा वादिनि -------------------------
जीवों में ज्ञान तुम्हारा है, मन में भगवान् तुम्हारा है।
जो तुम्हें समर्पित होता है, वह भी इंसान तुम्हारा है।
मैं करूं समर्पित क्या तुझको, सेवा में मुझे बुला लेना।
हे वीणा वादिनि -------------------------
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तुम्ह समान नहि कोऊ, मां दुर्गे तुम्ह समान नहिं कोऊ.....
ज्ञानिन्ह कर चित खींचत बल से
सींचत हो मन मोह के बल से
सुमिरन करत हरहु भय सारा
चिन्तन करत करहु उपकारा
हर लेती दारिद, भय दोउ, तुम्ह समान नहि कोऊ.....
नारायणि मंगलमय रानी
सब मंगल तुम्ह करहु भवानी
सिद्ध करहु तुम्ह सब पुरुषारथ
शरणागत वत्सल परमारथ
नहि सहाय तुम्ह बिनु अब कोउ, तुम्ह समान नहि कोऊ.....
शरणागत, पीड़ित की रक्षा
सबहि भान्ति तुम्ह करहु सुरक्षा
हरती पीड़ा त्रिनेत्र गौरी
सुनि पुकार आवहु तुम्ह दौरी
तुम्हहि प्रणाम करत सब कोऊ, तुम्ह समान नहि कोऊ....
सर्वेश्वरि मां सर्वस्वरूपा
दुर्गे देवि मां दिव्य स्वरूपा
रक्षा कर हे शक्ति स्वरूपा
दे दो मां निज भक्ति अनूपा
पुरुष, प्रकृति तुम्ह दोऊ, तुम्ह समान नहि कोऊ......
हो प्रसन्न सब रोग नसाए
कुपित भए सब काम नसाए
तुम्हरी शरण शरणदाता भए
सब बाधा हर शत्रु नसाए
आवत नहि विपत्ति तब कोऊ, तुम्ह समान नहि कोऊ.....
साभार
श्रीकांत सिंह
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महेंद्र कुमार उपाध्याय रचित कुछ भजन
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बन गए उसके काम------------
हे राम !
कहां तक गांऊं तेरा नाम
जिस जिस ने भी गाया तुझको,
बन गए उसके काम
हे राम ...................................!
शंकर ने गया त्रिभुवन पाया
फिर भी रहे निष्काम................
हे राम......................................!
पार्वती ने तुझको ध्याया,
त्रिभुवन पति को उसने पाया
जगत्जननी सुखधाम
हे राम...............................!सीता ने गाया राम रूप पाया,
अंग में लीन्हा बाम
हे राम................................!
विभीषण ने गाया लंका पाया,
शरण गया तजि धाम
हे राम..................................!हनुमत ने गाया, अमर फल पाया
पल में करें सब काम
हे राम...................................!वाल्मीकि ने तुझको गाया,
कोटि कोटि यश पाया
उल्टा जपत हरी नाम
हे राम....................................!
शबरी ने गाया, आश्रम में पाया
जपत निरंतर नाम
हे राम......................................!
तुलसी ने गाया मानस रचाया
कोटि जनम अघ नासे काम
हे राम......................................!
लिखत महेंद्र सकुच अति मानत
कलिमल करत विराम
हे राम......................................!
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---------हर तन में भगवान-------------
हर तन में भगवान है, लेकिन मन अनजान है।
जैसे मृग वन-वन फिरता है, वैसे यह इंसान है।
नहीं जानना खुद को चाहे, सिर्फ दूसरों को समझाए।
अपनी करनी समझ-समझ कर इसमें ही कल्याण है।
कुछ दिन का है रैन बसेरा, न कुछ तेरा, न कुछ मेरा।
छोड़ कपट छल ढूंढ़ मुक्ति हल, ज्योति समाई तेरे अन्दर।
ईश्वर रूप महान है, लेकिन मन अनजान है...............
जाति धर्म से ऊपर उठ कर, दया धर्म पतवार बनाकर।
क्यों महेन्द्र खुद बोता कांटे, जाना तो शमसान है।
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शिव भजन
शंकर शंभु नाम अविनाशी।
तुम हो प्रभु घट-घट के वासी।
त्याग मूर्ति तुम हो जगदीशा।
सुर, नर, मुनि सब नावत शीशा।
सकल विश्व प्रभु तुम्हीं नचावत।
राग-द्वेष तुम्हरे नहिं आवत।
शेष, शारदा तुमको गावत।
भेद तुम्हार कोई जान न पावत।
राम तुमहि तुम रामहि प्यारा।
नाथ करो कल्याण हमारा।
सादर प्रभु कर जोरत तोहीं।
ज्ञान भक्ति प्रभु दीजै मोहीं।
दास महेन्द्र, संजू प्रभु दासी।
कविता, माया, कान्त, उमा सी।
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जैसे मृग वन-वन फिरता है, वैसे यह इंसान है।
नहीं जानना खुद को चाहे, सिर्फ दूसरों को समझाए।
अपनी करनी समझ-समझ कर इसमें ही कल्याण है।
कुछ दिन का है रैन बसेरा, न कुछ तेरा, न कुछ मेरा।
छोड़ कपट छल ढूंढ़ मुक्ति हल, ज्योति समाई तेरे अन्दर।
ईश्वर रूप महान है, लेकिन मन अनजान है...............
जाति धर्म से ऊपर उठ कर, दया धर्म पतवार बनाकर।
क्यों महेन्द्र खुद बोता कांटे, जाना तो शमसान है।
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शिव भजन
शंकर शंभु नाम अविनाशी।
तुम हो प्रभु घट-घट के वासी।
त्याग मूर्ति तुम हो जगदीशा।
सुर, नर, मुनि सब नावत शीशा।
सकल विश्व प्रभु तुम्हीं नचावत।
राग-द्वेष तुम्हरे नहिं आवत।
शेष, शारदा तुमको गावत।
भेद तुम्हार कोई जान न पावत।
राम तुमहि तुम रामहि प्यारा।
नाथ करो कल्याण हमारा।
सादर प्रभु कर जोरत तोहीं।
ज्ञान भक्ति प्रभु दीजै मोहीं।
दास महेन्द्र, संजू प्रभु दासी।
कविता, माया, कान्त, उमा सी।
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अभिमान से ऊपर उठ जा
तू मान से ऊपर उठ जा, अपमान से ऊपर उठ जा
तू मान से ऊपर उठ जा, अपमान से ऊपर उठ जा
गर मिलना ईश्वर को, अभिमान से ऊपर उठ जा
वही जगत का स्वामी है, वही है पालन हार
तेरी सब चिंताएं केवल हैं बेकार
कुछ सेवा, कुछ भक्ति कर ले
ईमान से ऊपर उठ जा
तू मान ........................
अंजान बना क्यों घूमे, जैसे न कुछ तू जाने
सब जानता है फिर भी, कुछ मानता नहीं है
इन्द्रियों को बस में कर ले, इन्सान से ऊपर उठ जा
तू मान .........................
कर दया धर्म की बातें, क्यों है महेंद्र सकुचाते
संसार उसी ने रचाया, हर त्रिन में वही समाया
उस दृष्टी को अपना ले, अज्ञान से ऊपर उठ जा
तू मान ........................
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भज ले राम नाम
नामी भागे नाम के पीछे, कामी भागे काम के पीछे
नामी भागे नाम के पीछे, कामी भागे काम के पीछे
भज ले राम नाम को वन्दे, क्यों भगता है दाम के पीछे
तेरी सारी गति वो जाने क्यों न उसका कहा तू माने
गति दुर्गति तो वही जाने ; भाग ले केवल नाम के पीछे
नामी..........................................
काम, क्रोध को बस में कर ले लोभ, मोह, मद जीव को डस ले
क्यों फिरता है हर पल पंथी, मादकता और जाम के पीछे
नामी .........................................
तू भी उसको समझ सकेगा, जब हर पल उसका नाम जपेगा
मूर्ख महेंद्र क्यों नहीं भगता, तू अपने कल्याण के पीछे
नामी ........................................
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कैसा ये इंसान ..........................
सूरज, चाँद, समुद्र, धरा, सब देख तेरा विज्ञान
सूरज, चाँद, समुद्र, धरा, सब देख तेरा विज्ञान
दुनिया रोज आँख से देखे, फिर भी बने अंजान
प्रभु जी कैसा ये इंसान ..............................
तन की भूख बड़ी है इसकी, मन है बड़ा कुचाली
पर निंदा में समय गंवावत धरम धुरीन कहावत
वेद, शास्त्र सब छोडि-छोडि के बन गया अति सज्ञान ......
प्रभु जी कैसा ये इंसान ..............................
भूल गया क्या करना है ? भूल गया क्या भरना है
जो-जो बरजित वह सब करता, वह न करे जो करना है
कोटि जन्म मानुष तन पाया, बन ना सका महान
प्रभु जी कैसा ये इंसान ..............................
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-------क्यों मन--------
क्यों मन भटक भटक भटकावत
क्यों मन भटक भटक भटकावत
काम, क्रोध, मद, लोभ का फाटक
इर्ष्या का ताला मन मति पर
ज्ञान दीप को बुझावत
क्यों मन भटक भटक भटकावत ------
जोगी जोग साधि ले, मन को
बार बार भटकावत
जैसे हारिल चोंच में लकड़ी
अनायाश लै धावत
ऐसे राम नाम का दीया
क्यों नहीं ह्रदय जलावत
क्यों मन भटक भटक भटकावत
कुछ स्वारथ को छोड़ दे
मन परमारथ से जोड़ दे
जो सुख ढूढ़त कतहूँ ना पावत
आप ही हिय बिच आवत
क्यों मन भटक भटक भटकावत-----
मन की ब्याधि बड़ी है तन से
सुन्दरता ढूढ़त कंचन से
पारस है महेंद्र प्रभु नाम
दुनिया समुझि ना पावत
क्यों मन भटक भटक भटकावत----
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मन की गति------------
मन की गति है बहुत निराली
कबहुँक सूरज ज्योति दिखाए
कबहूँ रजनी अति काली
मन की.....
पार ब्रहम परमेश्वर ही मन
मिटटी का पुतला है ये तन
कभी कभी मन निर्मल दीखता
कभी बहुत बल शाली
मन की.....
कभी मद्य कभी मांश खिलाये
कभी चाय की प्याली
चतुर सुजन बात नहीं माने
मन पे राम नाम की ताली
मन की.....
जो महेंद्र भव पार है जाना
राम नाम में प्रीति लगाना
पग पग मन भट्कावत तोही
पकड़ ले राम नाम की डाली
मन की.....
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क्यों बौरा अति ब्याकुल---------
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क्यों बौरा अति ब्याकुल---------
रे मन तू अति अधम अधीर----
क्यों बौरा अति ब्याकुल घूमत
पकड़ ले नाम की सीर
रे मन -----------------------
जिसका नाम जपत ज्ञानी जन
भजत रहत रघुबीर
कर ले तू भी नाम का सुमिरन
मिट जाएगी पीर
रे मन--------------------------
हर घट में उसकी ही ज्योति
क्यों मन भये अधीर
तेरा मेरा काटि फंद सब
भज ले श्री रघुबीर
रे मन --------------------------
चित की चिंता मिट जाएगी
ज्योति से ज्योती मिल जाएगी
भजत नाम सब कट जायेंगे
भव भय बंधन पीर
रे मन --------------------------
ऐसी प्रीति महेंद्र लगा ले
राम नाम की लगन लगा ले
सारे पाप तेरे कट जायेंगे
भजत नाम रघुबीर
रे मन ---------------------------