दिऩांक | प्रमुख त्योहार | अन्य त्योहार | हिंदी माह | पक्ष | तिथि |
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1 नवंबर | सूर्य षष्ठी छठ व्रत, डाला छठ | मप्र-छग स्थापना दि. | कार्तिक | शुक्ल | षष्ठी (6) |
2 नवंबर | छठ व्रत पारणा | सहस्त्रबाहु ज., जलाराम बापा ज. | कार्तिक | शुक्ल | सप्तमी (7) ) |
3 नवंबर | पंचक प्रारंभ (रा.अंत 4.56) | गोपाष्टमी | कार्तिक | शुक्ल | अष्टमी (8) |
4 नवंबर | अक्षय, आँवला नवमी | कार्तिक | शुक्ल | नवमी (9) | |
5 नवंबर | कार्तिक | शुक्ल | दशमी (10) | ||
6 नवंबर | देवउठनी ग्यारस, तुलसी विवाह | कालिदास ज., नामदेव ज. | कार्तिक | शुक्ल | एकादशी (11) |
7 नवंबर | बकरा ईद | तुलसी विवाह (अन्य मत) | कार्तिक | शुक्ल | द्वादशी (12) |
8 नवंबर | पंचक समाप्त (रात्रि 1.51) | प्रदोष व्रत | कार्तिक | शुक्ल | त्रयोदशी (13) |
9 नवंबर | वैकुंठ चतुर्दशी व्रत | कार्तिक | शुक्ल | चतुर्दशी (14) | |
10 नवंबर | कार्तिक पूर्णिमा, का.स्ना.दा.व्र.नि.समा. | गुरुनानक ज., विद्यासागर आचार्य पद दि. | कार्तिक | शुक्ल | पूर्णिमा (15) |
11 नवंबर | भेड़ाघाट मेला, जबलपुर | अगहन | कृष्ण | एकम (1) | |
12 नवंबर | मदनमोहन मालवीय दि. | अगहन | कृष्ण | द्वितीया (2) | |
13 नवंबर | अगहन | कृष्ण | तृतीया (3) | ||
14 नवंबर | संकष्टी गणेश चतुर्थी (चं.उ.रा.8.26) | बाल दि., नेहरू ज. | अगहन | कृष्ण | चतुर्थी (4) |
15 नवंबर | पावागिरी मेला | बिरसा मुंडा ज. | अगहन | कृष्ण | पंचमी (5) |
16 नवंबर | पुष्य नक्षत्र (दिन 2.4 से) | अगहन | कृष्ण | षष्ठी (6) | |
17 नवंबर | पुष्य नक्षत्र (दिन 2.1 तक) | लाजपत राय दि., हेमंत ऋतु प्रा. . | अगहन | कृष्ण | सप्तमी (7) ) |
18 नवंबर | कालभैरव अष्टमी | सौर मास अग.प्रा. | अगहन | कृष्ण | अष्टमी (8) |
19 नवंबर | इंदिरा गाँधी, रानी लक्ष्मीबाई ज. | अगहन | कृष्ण | नवमी (9) | |
20 नवंबर | महावीर तप कल्याणक | अगहन | कृष्ण | दशमी (10) | |
21 नवंबर | उत्पन्ना एकादशी | अगहन | शुक्ल | एकादशी (11) | |
22 नवंबर | प्रदोष व्रत | वीरांगना झलकारी ज. | अगहन | कृष्ण | द्वादशी (12) |
23 नवंबर | शिव चतुर्दशी | अगहन | कृष्ण | त्रयोदशी (13) | |
24 नवंबर | . | गुरु तेगबहादुर शहीदी दि. | अगहन | कृष्ण | चतुर्दशी (14) |
25 नवंबर | अमावस्या | अगहन | कृष्ण | अमावस्या (15) | |
26 नवंबर | चंद्र दर्शन | पुष्पदंत जन्म-तप कल्याणक | अगहन | शुक्ल | एकम (1) |
27 नवंबर | मुहर्रम मास प्रारंभ | अगहन | शुक्ल | द्वितीया (2) | |
28 नवंबर | विनायकी चतुर्थी (चं.अ.रा.8.41) | अगहन | शुक्ल | तृतीया-चतुर्थी (3-4) | |
29 नवंबर | विवाह पंचमी, श्री पंचमी | अगहन | शुक्ल | पंचमी (5) | |
30 नवंबर | चंपा षष्ठी, स्कन्ध षष्ठी | भक्त नरसी मेहता ज. | अगहन | शुक्ल | षष्ठी (6) |
कार्तिक मास व्रत विधान
मानव जीवन में कार्तिक मास शुचिता, स्नान और व्रत की दृष्टि से मोक्ष का सर्वोत्तम साधन माना गया है।
कार्तिकव्रती को गंगा, विष्णु, शिव तथा सूर्य का स्मरण करते हुए जल में प्रवेश करना चाहिए। कमर तक जल में खड़े होकर विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए। गृहस्थ व्यक्ति को काला तिल तथा आंवले का चूर्ण लगाकर स्नान करना चाहिए परंतु विधवा तथा संन्यासियों को तुलसी के पौधे की जड़ में लगी हुई मृत्तिका को लगाकर स्नान करना चाहिए।
सप्तमी, अमावास्या, नवमी, द्वितीया, दशमी तथा त्रयोदशी-इन तिथियों में तिल एवं आंवले का प्रयोग वर्जित है।
कार्तिक मास में पितरों का तर्पण करने से पितरों को अक्षय तृप्ति प्राप्त होती है। तर्पण के पश्चात व्रती को जल से बाहर आकर शुद्ध वस्त्र धारण कर भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए।
किसी प्रकार के तामसी एवं उत्तेजक पदार्थों का सेवन व्रती को नहीं करना चाहिए। कार्तिकव्रती को ब्रह्मचर्य का पालन, भूमि शयन, दिन के चतुर्थ प्रहर में पत्तल आदि पर भोजन करना चाहिए।
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कार्तिक मास की महिमा
पुराणादि शास्त्रों में कार्तिक मास का विशेष महत्व है। हर मास का यूं तो अलग-अलग महत्व है मगर व्रत एवं तप की दृष्टि से कार्तिक की बहुत महिमा बताई गई है।
स्कंदपुराण के अनुसार-
'मासानां कार्तिकः श्रेष्ठो देवानां मधुसूदनः।
तीर्थ नारायणाख्यं हि त्रितयं दुर्लभं कलौ।'
अर्थात् भगवान विष्णु एवं विष्णुतीर्थ के सदृश ही कार्तिक मास को श्रेष्ठ और दुर्लभ कहा गया है। कार्तिक मास कल्याणकारी माना जाता है। कहा गया है कि कार्तिक के समान दूसरा कोई मास नहीं, सत्युग के समान कोई युग नहीं, वेद के समान कोई शास्त्र नहीं और गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं है।
'न कार्तिसमो मासो न कृतेन समं युगम्।
न वेदसदृशं शास्त्रं न तीर्थ गंगया समम्।'
सामान्य रूप से तुला राशि पर सूर्यनारायण के आते ही कार्तिक मास प्रारंभ हो जाता है। कार्तिक का माहात्म्य पद्मपुराण तथा स्कंदपुराण में बहुत विस्तार से उपलब्ध है। कार्तिक मास में स्त्रियां ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करके राधा-दामोदर की पूजा करती हैं। कलियुग में कार्तिक मास व्रत को मोक्ष के साधन के रूप में बताया गया है।
पुराणों के अनुसार इस मास को चारों पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देने वाला माना गया है। स्वयं नारायण ने ब्रह्मा को, ब्रह्मा ने नारद को और नारद ने महाराज पृथु को कार्तिक मास के माहात्म्य के संदर्भ में बताया है।
इस संसार में प्रत्येक मनुष्य सुख, शांति और परम आनंद चाहता है। कोई भी यह नहीं चाहता कि उसे अथवा उसके परिवारजनों को किसी तरह का कोई कष्ट, दुख एवं अशांति का सामना करना पड़े। परंतु प्रश्न यह है कि दुखों से मुक्ति कैसे मिले?
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कार्तिक में पूरे माह ब्रह्म मुहूर्त में किसी नदी, तालाब, नहर या पोखर में स्नान कर भगवान की पूजा की जाती है।
इस मास में व्रत करने वाली स्त्रियां अक्षय नवमी को आंवला के वृक्ष के नीचे भगवान कार्तिकेय की कथा सुनती हैं। कुंआरों-कुंआरियों एवं ब्राह्मणों को आंवला वृक्ष के नीचे विधिवत् भोजन कराया जाता है। वैसे तो पूरे कार्तिक मास में दान देने का विधान है। बिड़ला मंदिर वाटिका में अक्षयनवमी के दिन मेला भी लगता है। स्कंदपुराण के वैष्णवखंड में कार्तिक व्रत के महत्व के विषय में कहा गया है-
'रोगापहं पातकनाशकृत्परं सद्बुद्धिदं पुत्रधनादिसाधकम्।
मुक्तेर्निदानं नहि कार्तिकव्रताद् विष्णुप्रियादन्यदिहास्ति भूतले।'
अर्थात् इस मास को जहां रोगापह अर्थात् रोगविनाशक कहा गया है, वहीं सद्बुद्धि प्रदान करने वाला, लक्ष्मी का साधक तथा मुक्ति प्राप्त कराने में सहायक बताया गया है।
- कार्तिक मास में दीपदान करने की विधि है। आकाश दीप भी जलाया जाता है। यह कार्तिक का प्रधान कर्म है।
- कार्तिक का दूसरा प्रमुख कृत्य तुलसीवन पालन है। वैसे तो कार्तिक में ही नहीं, हर मास में तुलसी का सेवन कल्याणमय कहा गया है किंतु कार्तिक में तुलसी आराधना की विशेष महिमा है।
एक ओर आयुर्वेद शास्त्र में तुलसी को रोगहर कहा गया है वहीं दूसरी ओर यह यमदूतों के भय से मुक्ति प्रदान करती है। तुलसी वन पर्यावरण की शुद्धि के लिए भी महत्वपूर्ण है। भक्तिपूर्वक तुलसीपत्र अथवा मंजरी से भगवान का पूजन करने से अनंत लाभ मिलता है। कार्तिक व्रत में तुलसी आरोपण का विशेष महत्व है। तुलसी विष्णुप्रिया कहलाती हैं।
- इसी तरह कार्तिक मास व्रत का तीसरा प्रमुख कृत्य है भूमि पर शयन। भूमि शयन करने से सात्विकता में वृद्धि होती है। भूमि अर्थात् प्रभु के चरणों में सोने से जीव भयमुक्त हो जाता है।
- कार्तिक का चौथा मुख्य कार्य ब्रह्मचर्य का पालन बताया गया है।
पांचवां कर्म कार्तिकव्रती को चना, मटर आदि दालों, तिल का तेल, पकवान, भावों तथा शब्द से दूषित पदार्थों का त्याग करना चाहिए।
विष्णु संकीर्तन का कार्तिक मास में विशेष महत्व है। संकीर्तन से वाणी शुद्ध होती है।
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राम नाम से चलता है बैंक
दुनिया भर में धर्मनगरी के नाम से मशहूर भारत के प्रचीनतम शहर वाराणसी में एक अनूठा बैंक है, जो पैसे से नहीं बल्कि राम नाम से चलता है। इस बैंक से कर्ज के रूप में पैसे नहीं, बल्कि राम का नाम ही मिलता है। राम रमापति बैंक के नाम से जाना जाने वाला यह बैंक वाराणसी के दशाश्वमेध घाट इलाके में है। 84 साल पहले शुरू किए गए इस बैंक के कई लाख खातेदार (सदस्य) हैं।
बैंक के व्यवस्थापक सुमित मेहरोत्रा ने कहा कि राम रमापति बैंक का उद्देश्य लोगों में राम के प्रति आस्था जगाना और उन्हें सांसारिक समस्याओं से मुक्ति दिलाना है।
उन्होंने बताया कि पांच पीढ़ी पहले के उनके पूर्वज (दादा के दादा) दास छन्नू लाल ने अपने गुरु के कहने पर इसकी शुरुआत की थी। तब से यह परंपरा चली आ रही है। हर पीढ़ी में परिवार का सबसे बड़ा सदस्य बैंक का मैनेजर होता है।
इस बैंक में खाता खोलना और लोना लेना काफी आसान है। अपनी मनोकामना को बैंक के आवेदन-पत्र में भरने के बाद बैंक आपको सवा लाख राम नाम का लोन देता है।
मेहरोत्रा के मुताबिक, सवा लाख राम नाम के लोन का मतलब यह है कि आपको आठ महीने और 10 दिन के अंदर सवा लाख राम नाम लिखकर बैंक को वापस करना होता है। बैंक अपने हर खातेदार (सदस्य) को कागज, स्याही और कलम उपलब्ध कराता है।
मेहरोत्रा कहते हैं कि नियमों के अनुसार प्रतिदिन नहा-धोकर 500 बार राम नाम लिखा जा सकता है। खाताधारियों को इस निर्धारित अवधि के दौरान लहसुन, प्याज, मांसाहार और मद्यपान से भी दूर रहना होता है।
बैंक के मैनेजर दास कृष्ण चंद के मुताबिक, इस समय बैंक के पास 18 अरब 96 करोड़ 40 लाख हस्तलिखित राम नाम की लिपियां हैं, जो भक्तों ने लिखकर वापस की है।
बैंक कर्ज देने में जाति, धर्म का भेदभाव नहीं करता। कृष्ण चंद कहते हैं कि राम का अवतार किसी एक धर्म के लिए नहीं, बल्कि जीव मात्र के लिए हुआ। इसलिए किसी भी धर्म से कोई भी महिला-पुरुष बैंक का खाताधारक बनकर राम नाम का लोन ले सकते हैं।
यह पूछने पर कि क्या आज के वैज्ञानिक और सूचना प्रौद्योगिकी के जमाने में इस तरह की आस्था रूढ़िवादिता नहीं कही जानी चाहिए, मेहरोत्रा ने आत्मविश्वास के साथ कहा कि इस बैंक के सदस्य डॉक्टर, इंजीनियर, आला-ऑफिसर और यहां तक कि बॉलिवुड के सितारे भी हैं। बैंक अपने हर सदस्य का नाम गोपनीय रखता है।
बैंक की देखभाल करने वाले मेहरोत्रा परिवार के सदस्य अपनी जरूरतों के लिए अन्य काम करते हैं और साथ ही इस बैंक के लिए भी समय निकालते हैं, ताकि इस परंपरा को कायम रखा जा सके।
राम रमापति बैंक से कर्ज लेने वाले अतुल कुमार ने बताया कि उनके माता-पिता की केवल तीन बेटियां थीं। अतुल की मां ने 40 वर्ष पहले इस बैंक से राम नाम का लोन लिया था और तब उनका जन्म हुआ।
इस बैंक में आस्था रखने वाली संध्या बताती हैं कि उनकी बेटी की शादी नहीं हो रही थी। उन्होंने इस बैंक से राम-नाम का लोन लिया और फिर कर्ज चुकाने से पहले ही बेटी की शादी हो गई।
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कहते हैं किसी भी वस्तु या कार्य को प्रारंभ करने में मुहूर्त देखा जाता है, जिससे मन को बड़ा सुकून मिलता है। यहाँ हम कोई भी बंगला या भवन निर्मित करें या कोई व्यवसाय करने हेतु कोई सुंदर और भव्य इमारत बनाएँ तो सर्वप्रथम हमें 'मुहूर्त' को प्राथमिकता देनी होगी।
शुभ तिथि, वार, माह व नक्षत्रों में कोई इमारत बनाना प्रारंभ करने से न केवल किसी भी परिवार को आर्थिक, सामाजिक, मानसिक व शारीरिक फायदे मिलते हैं वरन उस परिवार के सदस्यों में सुख-शांति व स्वस्थता की प्राप्ति भी होती है।
यहाँ शुभ वार, शुभ महीना, शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र भवन निर्मित करते समय इस प्रकार से देखे जाने चाहिए ताकि निर्विघ्न, कोई भी कार्य संपादित हो सके।
शुभ वार : सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार (गुरुवार), शुक्रवार तथा शनिचर (शनिवार) सर्वाधिक शुभ दिन माने गए हैं। मंगलवार एवं रविवार को कभी भी भूमि पूजन, गृह निर्माण की शुरुआत, शिलान्यास या गृह प्रवेश नहीं करना चाहिए।
शुभ तिथि, वार, माह व नक्षत्रों में कोई इमारत बनाना प्रारंभ करने से न केवल किसी भी परिवार को आर्थिक, सामाजिक, मानसिक व शारीरिक फायदे मिलते हैं वरन उस परिवार के सदस्यों में सुख-शांति व स्वस्थता की प्राप्ति भी होती है।
यहाँ शुभ वार, शुभ महीना, शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र भवन निर्मित करते समय इस प्रकार से देखे जाने चाहिए ताकि निर्विघ्न, कोई भी कार्य संपादित हो सके।
शुभ वार : सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार (गुरुवार), शुक्रवार तथा शनिचर (शनिवार) सर्वाधिक शुभ दिन माने गए हैं। मंगलवार एवं रविवार को कभी भी भूमि पूजन, गृह निर्माण की शुरुआत, शिलान्यास या गृह प्रवेश नहीं करना चाहिए।
शुभ तिथि : गृह निर्माण हेतु सर्वाधिक शुभ तिथियाँ ये हैं : द्वितीया, तृतीया, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी एवं त्रयोदशी तिथियाँ, ये तिथियाँ सबसे ज्यादा प्रशस्त तथा प्रचलित बताई गई हैं, जबकि अष्टमी तिथि मध्यम मानी गई है।
प्रत्येक महीने में तीनों रिक्ता अशुभ होती हैं। ये रिक्ता तिथियाँ निम्न हैं- चतुर्थी, नवमी एवं चौदस या चतुर्दशी। यहाँ रिक्ता से आशय रिक्त से है, जिसे बोलचाल की भाषा में खालीपन या सूनापन लिए हुए रिक्त (खाली) तिथियाँ कहते हैं। अतः इन उक्त तीनों तिथियों में गृह निर्माण निषेध है।
शुभ नक्षत्र : किसी भी शुभ महीने के रोहिणी, पुष्य, अश्लेषा, मघा, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा भाद्रपदा, स्वाति, हस्त, चित्रा, रेवती, शतभिषा, धनिष्ठा सर्वाधिक उत्तम एवं पवित्र नक्षत्र हैं। गृह निर्माण या कोई भी शुभ कार्य इन नक्षत्रों में करना हितकर है। बाकी सभी नक्षत्र सामान्य नक्षत्रों की श्रेणी में आ जाते हैं।
सात 'स' से शुभारंभ
शास्त्रानुसार (स) अथवा (श) वर्ण से शुरू होने वाले सात शुभ लक्षणों में गृहारंभ निर्मित करने से धन-धान्य व अपूर्व सुख-वैभव की निरंतर वृद्धि होती है व पारिवारिक सदस्यों का बौद्धिक, मानसिक व सामाजिक विकास होता है। सप्त साकार का यह योग है, स्वाति नक्षत्र, शनिवार का दिन, शुक्ल पक्ष, सप्तमी तिथि, शुभ योग, सिंह लग्न एवं श्रावण माह। अतः गृह निर्माण या कोई भी कार्य के शुभारंभ में मुहूर्त पर विचार कर उसे क्रियान्वित करना अत्यावश्यक है।
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मंत्र शब्दों का एक खास क्रम है जो उच्चारित होने पर एक खास किस्म का स्पंदन पैदा करते हैं, जो हमें हमारे द्वारा उन स्पंदनों को ग्रहण करने की विशिष्ट क्षमता के अनुरूप ही प्रभावित करते हैं। हमारे कान शब्दों के कुछ खास किस्म की तरंगों को ही सुन पाते हैं। उससे अधिक कम आवृति वाली तरंगों को हम सुन नहीं पाते।
हमारे सुनने की क्षमता 20 से 20 हजार कंपन प्रति सेकेंड हैं। पर इसका यह अर्थ नहीं कि अन्य तरंगे प्रभावी नहीं है। उनका प्रभाव भी पड़ता है और कुछ प्राणी उन तरंगों को सुनने में सक्षम भी होते हैं।
जैसे- कुछ जानवरों और मछलियों को भूकंप की तरंगों की बहुत पहले ही जानकारी प्राप्त हो जाती है और इनके व्यवहार में भूकंप आने के पहले ही परिवर्तन दिखाई देने लगता है। इन्हीं सिद्वांतों पर आज की बेतार का तार प्रणाली भी कार्य करती है। इसे इस उदाहरण के द्वारा आसानी से समझा जा सकता है कि रेडियो तरंगे हमारे चारों ओर रहती है पर हमें सुनाई नहीं पड़ती क्योंकि वे इतनी सूक्ष्म होती हैं कि हमारे कानों की ध्वनि ग्राह्म क्षमता उन्हें पकड़ ही नहीं पाती।
हमारे सुनने की क्षमता 20 से 20 हजार कंपन प्रति सेकेंड हैं। पर इसका यह अर्थ नहीं कि अन्य तरंगे प्रभावी नहीं है। उनका प्रभाव भी पड़ता है और कुछ प्राणी उन तरंगों को सुनने में सक्षम भी होते हैं।
जैसे- कुछ जानवरों और मछलियों को भूकंप की तरंगों की बहुत पहले ही जानकारी प्राप्त हो जाती है और इनके व्यवहार में भूकंप आने के पहले ही परिवर्तन दिखाई देने लगता है। इन्हीं सिद्वांतों पर आज की बेतार का तार प्रणाली भी कार्य करती है। इसे इस उदाहरण के द्वारा आसानी से समझा जा सकता है कि रेडियो तरंगे हमारे चारों ओर रहती है पर हमें सुनाई नहीं पड़ती क्योंकि वे इतनी सूक्ष्म होती हैं कि हमारे कानों की ध्वनि ग्राह्म क्षमता उन्हें पकड़ ही नहीं पाती।
मंत्रों से निकलने वाली स्थूल ध्वनि तरंगों के अलावा उसके साथ श्रद्धाभाव व संकल्प की तरंगे भी मिली होती हैं। स्थूल ध्वनि तरंगों के अलावा जो तरंगे उठती हैं, उन्हें हमारे कान ग्रहण नहीं कर पाते। वे केश-लोमों के जरिए हमारे अंदर जाकर हमें प्रभावित करती हैं। मंत्रों के सूक्ष्म तरंगों को ग्रहण करने में केश-लोम बेतार का तार की तरंगे ग्रहण करने वालों की भाँति काम करते हैं और उनके माध्यम से ग्रहण किए गए मंत्रों की सूक्ष्म तरंगे हमारी समस्याओं के शमन में सहायक होती हैं।
शब्दों का खेल बहुत ही निराला है। मंत्र भी शब्दों का साम्यक संयोजन ही होता है। पर साथ ही इसमें सार्थकता भी जरूरी है। मंत्र के प्रभावी होने के लिए यह जरूरी है कि उच्चारण करने वाले को उसके भाव व उद्देश्य का पूरा ज्ञान हो। भाव तथा अर्थ के बगैर उसका पाठ निरर्थक सिद्ध होता है। इसी कारण कभी-कभी सही मंत्रों का भी सही प्रभाव नहीं पड़ता।
यह वह महत्वपूर्ण त्रुटि है जिसकी वजह से मंत्रों का भी सही प्रभाव नहीं पड़ता। फलस्वरूप अब अधिकांश लोगों का इस विद्या से विश्वास उठ गया है। कुछ लोग तो मात्र लोभ के कारण इसके ज्ञाता बनने का ढोंग किए बैठे हैं। जबकि उन्हें वास्तविक अर्थ का तनिक भी ज्ञान नहीं है। अनेक लोग मंत्रों के लय और उच्चारण से भी अपरिचित होते हैं।
मंत्रों में अपार शक्ति होती है और उनकी संख्या भी महाप्रभु की अनंतता की तरह ही अंसख्य है। सभी मंत्रों की साधना के ढंग अलग-अलग हैं और उनसे मिलने वाले फल भी भाँति-भाँति के होते हैं। मंत्रों का एक सीधा प्रभाव उसके उच्चारण से स्वयं उच्चारणकर्ता पर पड़ता है और दूसरा उस पर जिसे निमित्त बनाकर जिसके नाम से संकल्प लिया जाता है। मंत्र चैतन्य व दिव्य ऊर्जा से युक्त होते हैं परंतु गुरु परंपरा से प्राप्त मंत्र ही प्रभावी होते हैं।
अतः मंत्रों में जो चमत्कारी शक्ति निहित होती है, उसका पूरा लाभ उठाने के लिए आवश्यक है कि उसे पूरी तरह व सही मायने में जाना जाए। उसके लिए जानने-समझने वाले समर्थ गुरु से दीक्षा सहित मंत्र की जानकारी हासिल करना आवश्यक है। सच्चे गुरु के बिना मंत्रों का सही उच्चारण, लय व जप-विधि के बारे में कुछ भी जानना मुश्किल है। गुरु द्वारा बताए मंत्रों का सही तरीके से नियमपूर्वक व श्रद्धा से जप किया जाए तो उनसे अवश्य लाभ मिलता है।
बारह राशि के बारह दिव्य मंत्र
कोई भी व्यक्ति अपनी राशि के अनुसार मंत्र जाप करे तो शीघ्र सफलता मिलती है। मंत्र पाठ से व्यक्ति हर प्रकार के संकट से मुक्त रहता है। आर्थिक रूप से संपन्न हो जाता है। साथ ही जो आपके मार्ग में रोड़ा अटकाते हैं, वे भी इस जाप से नतमस्तक हो जाते हैं। यदि आप अपनी राशि के अनुसार नियमित रूप से जाप करेंगे तो आप कभी अस्वस्थ नहीं होंगे तथा हर प्रकार के संकट से मुक्त रहेंगे।
मेष : ऊँ ह्रीं श्रीं लक्ष्मीनारायण नम:
वृषभ : ऊँ गौपालायै उत्तर ध्वजाय नम:
मिथुन : ऊँ क्लीं कृष्णायै नम:
कर्क : ऊँ हिरण्यगर्भायै अव्यक्त रूपिणे नम:
सिंह : ऊँ क्लीं ब्रह्मणे जगदाधारायै नम:
कन्या : ऊँ नमो प्रीं पीताम्बरायै नम:
तुला : ऊँ तत्व निरंजनाय तारक रामायै नम:
वृश्चिक : ऊँ नारायणाय सुरसिंहायै नम:
धनु : ऊँ श्रीं देवकीकृष्णाय ऊर्ध्वषंतायै नम:
मकर : ऊँ श्रीं वत्सलायै नम:
कुंभ : श्रीं उपेन्द्रायै अच्युताय नम:
मीन : ऊँ क्लीं उद्धृताय उद्धारिणे नम:
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Yuva - MSN India सेहत के दो मीत : योग और संगीत
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भगवान श्रीराम की जन्म पत्रिका
गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस के अनुसार चैत्र शुक्ल की नवमी तिथि तथा पुनर्वसु नक्षत्र के चतुर्थ चरण एवं कर्क लग्न में भगवान श्रीराम का जन्म हुआ। गुरु और चन्द्र लग्न में हैं। पाँच ग्रह- शनि, मंगल, गुरु, शुक्र तथा सूर्य अपनी-अपनी उच्च राशि में स्थित हैं। गुरु कर्क राशि में उच्च का होता है। गुरु लग्न में चन्द्र के साथ स्थित है जिससे प्रबल कीर्ति देने वाला गजकेसरी योग बनता है। लेकिन शनि चतुर्थ भाव में अपनी उच्च राशि तुला में स्थित होकर लग्न को पूर्ण दृष्टि से देख रहा है।
मंगल सप्तम भाव में अपनी उच्च राशि मकर में स्थित होकर लग्न को पूर्ण दृष्टि से देख रहा है। इस कुंडली में दो सौम्य ग्रहों- गुरु एवं चन्द्र को दो पाप ग्रह शनि एवं मंगल अपनी-अपनी उच्च राशि में स्थित होकर देख रहे हैं। ऐसी स्थिति में प्रबल राजभंग योग बनता है। फलस्वरूप श्रीराम के राज्याभिषेक से लेकर जीवनपर्यंत सभी कार्यों में बाधाएँ पैदा होती रहीं। जिस समय श्रीराम का राज्याभिषेक होने जा रहा था, उस समय शनि महादशा में मंगल का अंतर चल रहा था।
श्रीरामजी मंगली थे। सप्तम (पत्नी) भाव में मंगल है। राहु अगर 3, 6 या 11वें भाव में स्थित हो तो अरिष्टों का शमन करता है। ग्रह स्थितियों के प्रभाववश श्रीराम को दाम्पत्य, मातृ, पितृ एवं भौतिक सुखों की प्राप्ति नहीं हो सकी।
इस तरह शनि एवं मंगल ने श्रीराम को अनेक संघर्षों के लिए विवश किया। श्रीरामजी मंगली थे। सप्तम (पत्नी) भाव में मंगल है। राहु अगर 3, 6 या 11वें भाव में स्थित हो तो अरिष्टों का शमन करता है। इन ग्रह स्थितियों के प्रभाववश श्रीराम को दाम्पत्य, मातृ, पितृ एवं भौतिक सुखों की प्राप्ति नहीं हो सकी। यद्यपि दशम भाव में उच्च राशि मेष में स्थित सूर्य ने श्रीराम को एक ऐसे सुयोग्य शासक के रूप में प्रतिष्ठित किया कि उनके अच्छे शासनकाल रामराज्य की आज भी दुहाई दी जाती है।
पौराणिक आख्यानों के अनुसार रामराज्य ग्यारह हजार वर्ष तक चला। राम का जन्म लगभग 1 करोड़ 25 लाख 58 हजार 98 वर्ष पूर्व हुआ था। आधुनिक काल गणना पद्धति ईस्वी सन् के अनुसार श्रीराम का जन्म 26 मार्च को माना गया है।
श्रीराम की कुंडली का विवेचन करने से यह तो पता चला कि किन-किन ग्रहों के कारण उनको भौतिक सुखों की प्राप्ति नहीं हुई। लेकिन हमें स्मरण रखना चाहिए कि श्रीराम ने त्याग और संघर्ष जैसे कष्टमय मार्ग पर चलकर स्वयं को मर्यादा पुरुषोत्तम के स्वरूप में प्रस्तुत किया। गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस के अनुसार चैत्र शुक्ल की नवमी तिथि तथा पुनर्वसु नक्षत्र के चतुर्थ चरण एवं कर्क लग्न में भगवान श्रीराम का जन्म हुआ। गुरु और चन्द्र लग्न में हैं। पाँच ग्रह- शनि, मंगल, गुरु, शुक्र तथा सूर्य अपनी-अपनी उच्च राशि में स्थित हैं। गुरु कर्क राशि में उच्च का होता है। गुरु लग्न में चन्द्र के साथ स्थित है जिससे प्रबल कीर्ति देने वाला गजकेसरी योग बनता है। लेकिन शनि चतुर्थ भाव में अपनी उच्च राशि तुला में स्थित होकर लग्न को पूर्ण दृष्टि से देख रहा है।
मंगल सप्तम भाव में अपनी उच्च राशि मकर में स्थित होकर लग्न को पूर्ण दृष्टि से देख रहा है। इस कुंडली में दो सौम्य ग्रहों- गुरु एवं चन्द्र को दो पाप ग्रह शनि एवं मंगल अपनी-अपनी उच्च राशि में स्थित होकर देख रहे हैं। ऐसी स्थिति में प्रबल राजभंग योग बनता है। फलस्वरूप श्रीराम के राज्याभिषेक से लेकर जीवनपर्यंत सभी कार्यों में बाधाएँ पैदा होती रहीं। जिस समय श्रीराम का राज्याभिषेक होने जा रहा था, उस समय शनि महादशा में मंगल का अंतर चल रहा था।
श्रीरामजी मंगली थे। सप्तम (पत्नी) भाव में मंगल है। राहु अगर 3, 6 या 11वें भाव में स्थित हो तो अरिष्टों का शमन करता है। ग्रह स्थितियों के प्रभाववश श्रीराम को दाम्पत्य, मातृ, पितृ एवं भौतिक सुखों की प्राप्ति नहीं हो सकी।
इस तरह शनि एवं मंगल ने श्रीराम को अनेक संघर्षों के लिए विवश किया। श्रीरामजी मंगली थे। सप्तम (पत्नी) भाव में मंगल है। राहु अगर 3, 6 या 11वें भाव में स्थित हो तो अरिष्टों का शमन करता है। इन ग्रह स्थितियों के प्रभाववश श्रीराम को दाम्पत्य, मातृ, पितृ एवं भौतिक सुखों की प्राप्ति नहीं हो सकी। यद्यपि दशम भाव में उच्च राशि मेष में स्थित सूर्य ने श्रीराम को एक ऐसे सुयोग्य शासक के रूप में प्रतिष्ठित किया कि उनके अच्छे शासनकाल रामराज्य की आज भी दुहाई दी जाती है।
पौराणिक आख्यानों के अनुसार रामराज्य ग्यारह हजार वर्ष तक चला। राम का जन्म लगभग 1 करोड़ 25 लाख 58 हजार 98 वर्ष पूर्व हुआ था। आधुनिक काल गणना पद्धति ईस्वी सन् के अनुसार श्रीराम का जन्म 26 मार्च को माना गया है।
सत्य के मार्ग पर हमेशा चलते रहे, अनेक कष्ट सहे मगर फिर भी लोक कल्याण के लक्ष्य से डिगे नहीं, हरदम आगे बढ़ते रहे। इसका कारण लग्न में गुरु एवं चन्द्र की युति का होना है।
पंचम (विद्या) एवं नवम (भाग्य) भाव पर गुरु की दृष्टि का प्रभाव यह रहा कि उन्होंने धर्म का पालन करने को ही अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य माना। धर्म के पथ से वे कभी हटे नहीं। श्रीराम के चरित्र से हम जितना भी सीख सकें कम ही होगा!
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मानवीय जीवन में भगवान की पूजा-प्रार्थना, आराधना का बहुत महत्व होता है। भगवान की पूजा करने के पीछे जहाँ हमारी कई मंशाएँ छुपी होती हैं। वहीं साधु-संतों और ज्योतिषीय दृष्टि से भी पूजा-पाठ का बहुत महत्व होता है। जब हम निरंतर नकारात्मकता के साथ जीने लगते है तो हमारे मन-मस्तिष्क पर बुरी-बुरी खबरों, विचारों का नियंत्रण हो जाता है। हम सोच नहीं पाते कि हमारे लिए क्या सही है और क्या गलत?
ऐसे समय में हम दो जगहों पर सबसे पहले पहुँचने का साहस जुटाते है। एक भगवान का द्वार और दूसरा है ज्योतिषी का दरबार। ऐसे में जहाँ हम भगवान से हमारे कष्टों की मुक्ति माँगते हैं वहीं ज्योतिषी भी कुछ ऐसे ही उपायों द्वारा हमें भगवान की आराधना करने की सलाह देते हैं। आइए देखते है इस पूजा-आराधना में हमारे भाव और हमारे कर्म कैसे होना चाहिए।
* एक कार्य की तरह न हो पूजा।
* एक भार की तरह न हो पूजा।
* एक अहसान की तरह न हो पूजा।
* अहं भाव का पोषण न हो पूजा।
* एक आडम्बर न हो पूजा।
* अपने कर्मों का लेखा-जोखा न हो पूजा।
* अपनी कामनाओं की पूर्ति का घर न हो पूजा।
* परमात्मा से अपने प्रेम का दिखावा न हो पूजा।
* पौधे और फूल का विग्रह न हो पूजा।
* तन को तकलीफ देने वाली न हो पूजा।
* जन्म की पहली श्वास से अंतिम श्वास तक परमात्मा को धन्यवाद देती हो पूजा।
* जीवन की प्रत्येक श्वास पर परमात्मा के लिए प्यार हो पूजा।
* नयनों का प्रत्येक दृश्य परमात्मा का आभास हो पूजा।
* मन का प्रत्येक विचार परमात्मा का साथ हो पूजा।
* प्रातःकाल की सबसे पहली साँस परमात्मा की मुलाकात हो पूजा।
* हर साँस परमात्मा की आस हो पूजा।
* प्रत्येक प्राणी में उसका आभास हो पूजा।
* प्रत्येक कर्म में उसकी शक्ति का अहसास हो पूजा।
* अपना प्रत्येक पाप उसको भुलाने का अहसास हो पूजा।
* जीवन में मिले सुखों और दुःखों में उसके परम प्यार का अहसास हो पूजा।
* नियमों और कायदों में बँधी न हो पूजा, बस उसके और मेरे प्यार का अहसास भर हो पूजा।
* मेरी और उनकी (परमात्मा) की एकांत और गहन मुलाकात हो पूजा।
* दोनों को एक-दूसरे की समान तीव्र तड़प हो यही सार्थक पूजा।
कुछ ऐसी ही बातों को रोजमर्रा के जीवन में शामिल करके हम आराधना को सार्थक बना सकते हैं।
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हनुमान पूजन से दूर होगी साढ़ेसाती
चैत्र पूर्णिमा के दिन हनुमान जयंती मनाई जाती है। प्रायः शनिवार व मंगलवार हनुमान के दिन माने जाते हैं। इस दिन हनुमान को सिंदूर व तेल अर्पण करने की प्रथा है। कुछ जगह तो नारियल चढ़ाने की भी रूढ़ि है। आध्यात्मिक उन्नति के लिए वाममुखी (जिसका मुख बाईं ओर हो) हनुमान या दासहनुमान की मूर्ति को पूजा में रखते हैं।
दासहनुमान व वीर हनुमान : ये हनुमान के दो रूप हैं। दासहनुमान राम के आगे हाथ जोड़े खड़े रहते हैं। उनकी पूँछ जमीन पर रहती है। वीर हनुमान योद्धा मुद्रा में होते हैं। उनकी पूँछ उत्थित रहती है व दाहिना हाथ माथे की ओर मुड़ा रहता है। कभी-कभी उनके पैरों तले राक्षस की मूर्ति भी होती है। भूतावेश, जादू-टोना इत्यादि द्वारा कष्ट दूर करने के लिए वीर हनुमान की उपासना करते हैं।
दक्षिणमुखी हनुमान : इस मूर्ति का मुख दक्षिण की ओर होता है इसलिए इसे दक्षिणमुखी हनुमान कहते हैं। जादू-टोना, मंत्र-तंत्र इत्यादि प्रयोग प्रमुखतः ऐसी मूर्ति के सम्मुख ही किए जाते हैं। ऐसी मूर्तियाँ महाराष्ट्र में मुंबई, पुणे, औरंगाबाद इत्यादि क्षेत्रों में व कर्नाटक में बसवगुडी क्षेत्र में पाई जाती हैं।
तेल, सिंदूर अर्पण करने का कारण : पूजा के दौरान देवताओं को जो वस्तु अर्पित की जाती हैं, वे वस्तु उन देवताओं को प्रिय हैं, ऐसा बालबोध भाषा में बताया जाता है, उदा. गणपति को लाल फूल, शिव को बेल व विष्णु को तुलसी इत्यादि। उसके पश्चात उस वस्तु के प्रिय होने के संदर्भ में कथा सुनाई जाती है। प्रत्यक्ष में शिव, विष्णु, गणपति जैसे उच्च देवताओं की कोई पसंद-नापसंद नहीं होती। देवता को विशेष वस्तु अर्पित करने का तात्पर्य आगे दिए अनुसार है।
पूजा का एक उद्देश्य यह है कि, पूजी जाने वाली मूर्ति में चैतन्य निर्माण हो व उसका उपयोग हमारी आध्यात्मिक उन्नति के लिए हो। यह चैतन्य निर्माण करने हेतु देवता को जो विशेष वस्तु अर्पित की जाती है, उस वस्तु में देवताओं के महालोक तक फैले हुए पवित्रक (उस देवता के सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण) आकर्षित करने की क्षमता अन्य वस्तुओं की अपेक्षा अधिक होती है।
तेल, सिंदूर, रुई के पत्तों में हनुमान के पवित्रक आकर्षित करने की क्षमता सर्वाधिक है। इसी कारण हनुमान को यह सामग्री अर्पित करते हैं।
शनि की साढ़ेसाती व हनुमान की पूजा :
यदि शनि की साढ़ेसाती हो, तो उस प्रभाव को कम करने हेतु हनुमान की पूजा करते हैं।
यह विधि इस प्रकार है- एक कटोरी में तेल लें व उसमें काली उड़द के चौदह दाने डालकर उस तेल में अपना चेहरा देखें। उसके उपरांत यह तेल हनुमान को चढ़ाएँ। जो व्यक्ति बीमारी के कारण हनुमान मंदिर नहीं जा सकता, वह भी इस पद्धतिनुसार हनुमान की पूजा कर सकता है।
खरा तेली शनिवार के दिन तेल नहीं बेचता, क्योंकि जिस शक्ति के कष्ट से छुटकारा पाने के लिए कोई मनुष्य हनुमान पर तेल चढ़ाता है, संभवतः वह शक्ति तेली को भी कष्ट दे सकती है। इसलिए हनुमान मंदिर के बाहर बैठे तेल बेचने वालों से तेल न खरीदकर घर से ही तेल ले जाकर चढ़ाए। ------------------------------------------------------------------------------------
ज्योतिर्विद सुरेश श्रीमाली के अनुसार यदि लग्न पत्रिका में कोई ग्रह नीच राशि में भी क्यों न बैठा हो उसका प्रभाव आध्यात्मिक साधकों पर एवं माता-पिता की सेवा करने वालों पर नहीं पड़ता।
अतः जन्म के समय ग्रह जहाँ भी बैठ गए हों बैठे रहने दीजिए लेकिन आप अपने माता-पिता एवं गुरुजनों के चरणों में बैठ जाइए सब ठीक हो जाएगा।
भाग्य और कर्म दोनों ही अपना-अपना महत्व रखते हैं। कर्म को एक से लेकर नौ अंक मान लो और भाग्य को शून्य।
कर्म के साथ भाग्य जोड़ दोगे तो उसका मान 10 गुना बढ़ता ही जाएगा। लेकिन केवल भाग्य भरोसे बैठकर कर्म भी क्षीण होने लगते हैं।
चैत्र पूर्णिमा के दिन हनुमान जयंती मनाई जाती है। प्रायः शनिवार व मंगलवार हनुमान के दिन माने जाते हैं। इस दिन हनुमान को सिंदूर व तेल अर्पण करने की प्रथा है। कुछ जगह तो नारियल चढ़ाने की भी रूढ़ि है। आध्यात्मिक उन्नति के लिए वाममुखी (जिसका मुख बाईं ओर हो) हनुमान या दासहनुमान की मूर्ति को पूजा में रखते हैं।
दासहनुमान व वीर हनुमान : ये हनुमान के दो रूप हैं। दासहनुमान राम के आगे हाथ जोड़े खड़े रहते हैं। उनकी पूँछ जमीन पर रहती है। वीर हनुमान योद्धा मुद्रा में होते हैं। उनकी पूँछ उत्थित रहती है व दाहिना हाथ माथे की ओर मुड़ा रहता है। कभी-कभी उनके पैरों तले राक्षस की मूर्ति भी होती है। भूतावेश, जादू-टोना इत्यादि द्वारा कष्ट दूर करने के लिए वीर हनुमान की उपासना करते हैं।
दक्षिणमुखी हनुमान : इस मूर्ति का मुख दक्षिण की ओर होता है इसलिए इसे दक्षिणमुखी हनुमान कहते हैं। जादू-टोना, मंत्र-तंत्र इत्यादि प्रयोग प्रमुखतः ऐसी मूर्ति के सम्मुख ही किए जाते हैं। ऐसी मूर्तियाँ महाराष्ट्र में मुंबई, पुणे, औरंगाबाद इत्यादि क्षेत्रों में व कर्नाटक में बसवगुडी क्षेत्र में पाई जाती हैं।
तेल, सिंदूर अर्पण करने का कारण : पूजा के दौरान देवताओं को जो वस्तु अर्पित की जाती हैं, वे वस्तु उन देवताओं को प्रिय हैं, ऐसा बालबोध भाषा में बताया जाता है, उदा. गणपति को लाल फूल, शिव को बेल व विष्णु को तुलसी इत्यादि। उसके पश्चात उस वस्तु के प्रिय होने के संदर्भ में कथा सुनाई जाती है। प्रत्यक्ष में शिव, विष्णु, गणपति जैसे उच्च देवताओं की कोई पसंद-नापसंद नहीं होती। देवता को विशेष वस्तु अर्पित करने का तात्पर्य आगे दिए अनुसार है।
पूजा का एक उद्देश्य यह है कि, पूजी जाने वाली मूर्ति में चैतन्य निर्माण हो व उसका उपयोग हमारी आध्यात्मिक उन्नति के लिए हो। यह चैतन्य निर्माण करने हेतु देवता को जो विशेष वस्तु अर्पित की जाती है, उस वस्तु में देवताओं के महालोक तक फैले हुए पवित्रक (उस देवता के सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण) आकर्षित करने की क्षमता अन्य वस्तुओं की अपेक्षा अधिक होती है।
तेल, सिंदूर, रुई के पत्तों में हनुमान के पवित्रक आकर्षित करने की क्षमता सर्वाधिक है। इसी कारण हनुमान को यह सामग्री अर्पित करते हैं।
शनि की साढ़ेसाती व हनुमान की पूजा :
यदि शनि की साढ़ेसाती हो, तो उस प्रभाव को कम करने हेतु हनुमान की पूजा करते हैं।
यह विधि इस प्रकार है- एक कटोरी में तेल लें व उसमें काली उड़द के चौदह दाने डालकर उस तेल में अपना चेहरा देखें। उसके उपरांत यह तेल हनुमान को चढ़ाएँ। जो व्यक्ति बीमारी के कारण हनुमान मंदिर नहीं जा सकता, वह भी इस पद्धतिनुसार हनुमान की पूजा कर सकता है।
खरा तेली शनिवार के दिन तेल नहीं बेचता, क्योंकि जिस शक्ति के कष्ट से छुटकारा पाने के लिए कोई मनुष्य हनुमान पर तेल चढ़ाता है, संभवतः वह शक्ति तेली को भी कष्ट दे सकती है। इसलिए हनुमान मंदिर के बाहर बैठे तेल बेचने वालों से तेल न खरीदकर घर से ही तेल ले जाकर चढ़ाए। ------------------------------------------------------------------------------------
माता-पिता एवं गुरुजनों की सेवा करने से ग्रहों की प्रतिकूल दशा भी अनुकूल हो जाती है। ऐसा ज्योतिष शास्त्रों के उल्लेख है।
ज्योतिषाचार्य डॉ. राधाकृष्णन श्रीमाली कहते हैं कि वैसे तो संसार में सभी प्राणी एवं वनस्पति जगत भी ग्रहों को चाल से किसी न किसी रूप में प्रभावित होते हैं लेकिन समस्या उत्पन्न क्यों हुई और उसका समाधान कैसे होगा इस बात का अधिक महत्व होता है। अतः समस्याओं का समाधान आध्यात्मिक साधना से ही संभव होता है।
तंत्र, मंत्र और यंत्र साधना के साथ-साथ, साधना-आराधना और उपासना के भी चमत्कारिक प्रभाव होते है। हमारे शास्त्रों में अनंत ज्ञान भरा हुआ है लेकिन प्रायः लोग उनका शाब्दिक अर्थ लेकर सामान्य धरातल पर ही रह जाते हैं। आवश्यकता है मंत्र और स्तोत्रों के लाक्षणिक अर्थ को जानने और समझने की।
ज्योतिषाचार्य डॉ. राधाकृष्णन श्रीमाली कहते हैं कि वैसे तो संसार में सभी प्राणी एवं वनस्पति जगत भी ग्रहों को चाल से किसी न किसी रूप में प्रभावित होते हैं लेकिन समस्या उत्पन्न क्यों हुई और उसका समाधान कैसे होगा इस बात का अधिक महत्व होता है। अतः समस्याओं का समाधान आध्यात्मिक साधना से ही संभव होता है।
तंत्र, मंत्र और यंत्र साधना के साथ-साथ, साधना-आराधना और उपासना के भी चमत्कारिक प्रभाव होते है। हमारे शास्त्रों में अनंत ज्ञान भरा हुआ है लेकिन प्रायः लोग उनका शाब्दिक अर्थ लेकर सामान्य धरातल पर ही रह जाते हैं। आवश्यकता है मंत्र और स्तोत्रों के लाक्षणिक अर्थ को जानने और समझने की।
अतः जन्म के समय ग्रह जहाँ भी बैठ गए हों बैठे रहने दीजिए लेकिन आप अपने माता-पिता एवं गुरुजनों के चरणों में बैठ जाइए सब ठीक हो जाएगा।
भाग्य और कर्म दोनों ही अपना-अपना महत्व रखते हैं। कर्म को एक से लेकर नौ अंक मान लो और भाग्य को शून्य।
कर्म के साथ भाग्य जोड़ दोगे तो उसका मान 10 गुना बढ़ता ही जाएगा। लेकिन केवल भाग्य भरोसे बैठकर कर्म भी क्षीण होने लगते हैं।